Ghazal_Poet_Aamir Abeez
रगों की सतह पे पुख़्ता उभार करता हुआ
है एक रोग मुसलसल फ़शार करता हुआ
है एक ज़मीं, फ़लक की तवाफ़ में रक़्सां
एक आसमां, ज़मीं को मदार करता हुआ
हवा का ऐसा तहर्रुक नवाह से
गुज़रा
दरुनी मौसमों को बेक़रार करता हुआ
वह एक लम्स किसी मुअज्ज़े से कम तो नहीं
बदन की लम्स को यकसर शरार करता हुआ
ज़मां की सैर को कुंज ए ख़ला में पहुंचा है
धुएं की खेप को वह तार तार करता हुआ
कोई वजूद है मुझमें ज़ुजाज की सूरत
जो कुन के भेद को है ताबकार करता हुआ
आमिर अबीज़
غزل
رگوں کی سطح پہ پختہ ابھار کرتا ہوا
ہے ایک روگ مسلسل فشار کرتا ہوا
ہے اک زمین ، فلک کے طواف میں رقصاں
اک آسمان ، زمیں کو مدار کرتا ہوا
ہوا کا ایسا تحرک نواح سے گزرا
درونی موسموں کو بے قرار کرتا ہوا
وہ ایک لمس کسی معجزے سے کم تو نہیں
بدن کی برف کو یکسر شرار کرتا ہوا
زماں کی سیر کو کنجِ خلا میں پہنچا ہے
دھویں کی کھیپ کو وہ تار تار کرتا ہوا
کوئی وجود ہے مجھ میں زجاج کی صورت
جو کُن کے بھید کو ہے تابکار کرتا ہوا
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