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Showing posts from June, 2021

Sher_Poet_Syed Ali Sharukh

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हम अपने दर्द तो तहरीर कर नहीं सकते  तुम्हारे ज़िक्र पे बस शर्मसार होते हैं सैयद अली शाहरुख़ बुखा़री ھم اپنے درد تو تحریر کر نہیں سکتے تمہارے ذکر پہ بس شرمسار ہوتے ہیں س ع ش بخاری

Ghazal_Poet_Syed ‎Javed Bukhari

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तमाम आग तखै़युल  में भर के ला रहा था  मैं एक दर्द से सुबकदोष होके आ रहा था क़दीम याद  अजब दर्द लेके आई थी पुराना जख़्म नई शोलगी  दिखा रहा था इसी लिए तो मेरा चेहरा गर्द गर्द हुआ  मैं आईने की नज़र में गु़बार ला रहा था आंख बुझते हुए भी बुझा रही थी यह प्यास हाथ जलते हुए भी दीया जला रहा था यहअब ग़ज़ल में दर आए हैं और भी पहलू गए दिनों में मोहब्बत ही का़फि़या रहा था  वह ख़ुद को चाक पे लाया था लेकिन उससे अलग वह अपनी ख़ाक से रोशन दिया बना रहा था धुआं धुआं सी मोहब्बत कहां गई जावेद उससे बुझती हुई रोशनी कमा रहा था सय्यद जावेद تمام آگ تخیل میں بھر کے لا رہا تھا میں ایک در سے سبک دوش ہوکے آرہا تھا قدیم یاد عجب درد لے کے آئی تھی پرانا زخم نئی شعلگی دکھا رہا تھا اسی لئیے تو مرا چہرہ گرد گرد ہوا میں آئینے کی نظر میں غبار لا رہا تھا وہ آنکھ بجھتے ہوئے بھی بجھا رہی تھی یہ پیاس وہ ہاتھ جلتے ہوئے بھی دیا جلا رہا تھا یہ اب غزل میں در آئے ہیں اور بھی پہلو گئے دنوں میں محبت ہی قافیہ رہا تھا وہ خود کو چاک پہ لایا تھا لیکن اس سے الگ وہ اپنی خاک سے روشن دیا بنا رہا تھا دھواں دھواں سی محبت

Sher _Poet_Sadia Jameel

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शब दरीचे में आन बैठी है  अपनी आंखें चिराग़् कर दो ना सादिया जमील شب دریچے میں آن بیٹھی ہے اپنی آنکھیں  چراغ  کردو ناں سعدیہ جمیل

Ghazal_Poet_Farrukh Adeel

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मुस्कुराता था जहां कोई भंवर आता था तैरने का मुझे ऐसा भी हुनर आता था वक़्त ने धुंध सी भर दी है मेरे आंखों में पहले पहले तो बहुत साफ़ नज़र आता था नाम लेता था मैं उस शख्स का तारीकी  में और सूरज मेरे पहलू में उतर आता था आंख से होता हुआ जिस्म की बुनियाद तलक एक सैलाब था जो बारे दिगर आता था दर-बदर ख़ाक उड़ाते हुए फिरता हूं जहां इन्हीं रस्तों पे कभी मेरा भी घर आता था कोई करता था किनारे से इशारा मुझको  डूबते डूबते  मैं फिर से उभर आता था फ़र्रुख़ अदील غزل  مسکراتا تھا جہاں کوئی بھنور آتا تھا تیرنے کا مجھے ایسا بھی ہنر آتا تھا وقت نے دھند سی بھر دی ہے مری آنکھوں میں  پہلے پہلے تو بہت صاف نظر آتا تھا  نام لیتا تھا میں اُس شخص کا تاریکی میں اور سورج مرے پہلو میں اتر آتا تھا  آنکھ سے ہوتا ہوا جسم کی بنیاد تلک  ایک سیلاب تھا جو بارِ دگر آتا تھا  دربدر خاک اڑاتے ہوئے پھرتا ہوں جہاں  انہی رستوں پہ کبھی میرا بھی گھر آتا تھا کوئی کرتا تھا کنارے سے اشارہ مجھ کو  ڈوبتے ڈوبتے میں پھر سے ابھر آتا تھا فرخ عدیل

Ghazal_Poet_Badar Semab

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यह जनाब कोई पूछता नहीं जब वक्त़ हो ख़राब कोई पूछता नहीं अच्छे दिनों में साथ मेरे एक जहान था अब ज़िंदगी अज़ाब कोई पूछता नहीं खु़शियों का पूछते हैं सभी आकर बार-बार गम़ भी हैं दस्तयाब कोई पूछता नहीं अब क्या हुआ है मिस्र के सौदागरो  तुम्हें मैं बेचता हूं ख़्वाब कोई पूछता नहीं मुझ से एसीरे शब का ज़रा हाल देखना जुगनू कि माहताब कोई पूछता नहीं बदर सीमाब (कुवैत) دنیا ہے یہ جناب کوئی پوچھتا نہیں جب وقت ہو خراب کوئی پوچھتا نہیں اچھے دنوں میں ساتھ مرے اک جہان تھا اب زندگی عذاب ، کوئی پوچھتا نہیں خوشیوں کا پوچھتے ہیں سبھی آ کے بار بار غم بھی ہیں دستیاب کوئی پوچھتا نہیں اب کیا ہوا ہے مصر کے سوداگرو تمہیں ؟ میں بیچتا ہوں خواب کوئی پوچھتا نہیں مجھ سے اسیر شب کا ذرا حال دیکھنا جگنو کہ ماہتاب ، کوئی پوچھتا نہیں بدر سیماب۔۔۔۔ کویت

Nazm_Tum Udas Ladki Ho,_Poet_Asif Mahmood Kaifi

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तुम उदास लड़की हो जिंसियत के मारों  को शेर क्यों सुनाती हो बेज़मीर लोगों को  ख़्वाब क्यों दिखाती हो? तुम उदास लड़की हो  और ख़ास लड़की हो दे चिराग़ राहों में  दीप क्यों जलाती हो फूल क्यों जाती हो? लोग तो फ़रेबी हैं  तुम नहीं हो लोगों सी क्यों उन्हें मोहब्बत का  ज़ायका बताती हो? जिंसियत के मारो को  शेर क्यों सुनाती हो ? आसिफ़ महमूद कैफी़ نظم ۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔تم اداس لڑکی ہو جِنسِیَت کے ماروں کو شعر کیوں سناتی ہو؟ بے ضمیر لوگوں کو خواب کیوں دکھاتی ہو؟ تم اُداس لڑکی ہو ۔ اور خاص لڑکی ہو! بے چراغ راہوں میں دِیپ کیوں جلاتی ہو؟ پھول کیوں سجاتی ہو؟؟ لوگ تَو فریبی ہیں ۔ تم نہیں ہو لوگوں سی! کیوں انہیں محبّت کا ذائقہ بتاتی ہو؟ جِنسِیَت کے ماروں کو شعر کیوں سناتی ہو؟؟ آصؔف محمود کیفی

Sher_Poet_Faqeeh Haider

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तीरगी में रौशनी के इसतेआरे बन गए उसने गीले बाल झाड़े तो सितारे बन गए फ़क़ीह हैदर تیرگی میں روشنی کے استعارے بن گئے..  اس نے گیلے بال جھاڑے تو ستارے بن گئے..  فقیہ حیدر

Sher_Poet_Hasan Zaidi

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बिछड़ के तुझसे कभी फिर नहीं कहा हमने  हमारे पास खुदा का दिया बहुत कुछ हसन जै़दी بچھڑ کے تجھ سے کبھی پھر نہیں کہا ہم نے ہمارے پاس خدا کا دیا بہت کچھ ہے حسن زیدی

Ghazal_Poet_Najmul ‎Hasan

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गुज़शता शब यह मेरे साथ इत्तेफा़क़ हुआ मै शोर करती हुई ख़ामशी से ख़ाक हुआ तुम अपनी सांस भी गिरवी रखोगे हैरत है यह ज़िंदगी से भला कौन सा मज़ाक हुआ उठा जो शोर कभी बेबसी के पहलू से तो एक दर्द बड़ी बेदिली से आक़ हुआ जब एक इसम पढ़ा तो हुआ जहां रोशन जब एक ज़िक्र किया तो मकान पाक हुआ ज़रब जो उसने दी नफ़रत भरी निगाहों से मैं जुफ़्त होते हुए एकदम से ताक़ हुआ गुज़र गया मगर एहसास हो गया आख़िर कि ईश्के़ हादसा हद दरजा खौ़फ़नाक हुआ नजमुल हसन  एबटाबाद غزل  گزشتہ شب یہ مرے ساتھ اتفاق ہوا میں شور کرتی ہوئی خامشی سے خاک ہوا تم اپنی سانسیں بھی گروی رکھو گے , حیرت ہے یہ زندگی سے بھلا کون سا مذاق ہوا اٹھا جو شور کبھی بےبسی کے پہلو سے تو ایک درد بڑی بے دلی سے عاق ہوا جب ایک اسم پڑھا تو ہوا جہاں روشن جب ایک ذکر کیا تو مکان پاک ہوا ضرب جو اس نے دی نفرت بھری نگاہوں سے میں جفت ہوتے ہوئے ایک دم سے طاق ہوا گزر گیا مگر احساس ہوگیا آخر کہ عشق حادثہ حد درجہ خوف ناک ہوا  نجم الحسن  (ایبٹ آباد)

Ghazal_ Poet _ Zamir Qais

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कुछ इसलिए भी थकन की दलील चुभती है ज़रा जो टेक लगाऊं फ़सील चुभती है नहा रहा हूं उदासी के बर्फजा़रों में बदन को धूप नहीं अब तो झील चुभती है चराग़ ख़ल्क़ हुआ था मेरे घराने में हवा को इसलिए मेरी क़बील चुभती है मिजा़ज व लम्स में ऐसा तज़ाद है कि मैं गुदाज़ लगता है ख़ंजर शनील चुभती है यह दिल है तिष्णा खज़ा़नों का वह सुराग़ जैसे मताए ख़सलते  दरिया ए नील चुभती है मैं चश्मे जख्मे  फिलीस्तीन की बसारत हूं मुझे भी रेगे बनी इसराइल चुभती है तवज्जो यार की खै़रात खास है जो सदा बढ़े तो बद गुमान करदे कलील चुभती है मैं चुन रहा हूं मुसाफ़त की कृचियां जब से हर एक सतरे ख़ते संगे मील चुभती है अब ऐसे मख़मली पैरों को कौन सहलाए ज़मीं पे रखते हुए जिनको बेल चुभती है यह  हिॼ भी है आजी़यत में जिंदगी करना कि जिस तरह किसी जूते कील  चुभती है दिखाए कोई तो नींदों के ख़्वाब मुझको ज़मीर सितारे गिनते हुए शब  तवील चुभती है ज़मीर कै़स کچھ اس لئے بھی تھکن کی دلیل چبھتی ہے ذرا جو ٹیک لگاؤں ، فصیل چبھتی ہے نہا رہا ہوں اداسی کے برف زاروں میں بدن کو دھوپ نہیں اب تو جھیل چبھتی ہے چراغ خلق ہوا تھا مرے گھرانے میں ہوا کو اس لئے میری ق

Ghazal_Poet_Sershar ‎Faqeerzada

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मैं सह ना पाऊंगा अब कि शायद, मजी़द गु़स्सा व‌ ताओ जानी कि तेरे नख़रों से पहले ही, लगाए जां पर हैं घाव जानी कहो कि जाती है मेरी जूती, तेरे कहे से, बड़े हो आए मैं आके गु़स्से में तुम को कह दूं ,कभी अगर  जाओ जाओ जानी हसीन दुनिया में और भी हैं मैं एक नहीं मिस्ले माहे  कनां कि शाम व सुबह देख देख मुझको कहीं नज़र मत लगाओ जानी फ़लक पे सूरज भी आन वारिद  कभी अचानक नहीं हुआ है रूखे़ मुनव्वर से काकूलो को न एकदम  से हटाओ जानी तुम्हारे क़दमों की धूल सुरमा मेरी निगाह का, ख़ुदा की बंदी ख़ुदा की खा़तिर यह बात सुनकर न  धूल मुझको चटाओ जानी तुम्हारे दिल तक पहुंचने की हम हर एक मुमकिन सई करेंगे तुम्हारे दिल को कहां से जाती है राह, तुम ही बताओ जानी तुम्हारे बिन ख़ुद को हम अधूरे तलक भी कैसे शुमार करते हैं तुम्हारे बिन हम नहीं है अच्छे हमारे बिन तुम सुनाओ जानी तुम्हारी आदत है चोट करना अबद तलक ये रवा ही रखना सितम उठाकर भी मुस्कुराना जो है हमारा स्वभाव जानी सरशार फ़की़र जा़दा میں سہہ نہ پاؤں گا اب کے شاید ، مزید غصہ و تاؤ، جانی  کہ تیرے نخروں نے پہلے سے ہی ، لگائے جاں پر ہیں گھاؤ ، جانی کہو ، کہ جاتی ہے میری جوت

Nazm _Khalipan me neend ki khwahish _Poet _Ali zeyoof

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खा़लीपन में नींद की ख्वाहिश ग़शी नींद की कहकशाओ में प्रवेश करने के लिए मदार मुतॶय्यन नहीं कर सकती हम औंधे मुंह रेंग कर भी  तैरते सूरज से आगे नहीं निकल सकते  हमारे निशान मिटाता हुआ चांद मंजि़लें सर करते हुए खजूर की पुरानी  शाख़़ जैसा हो जाता है रात दिन पर सबक़त नहीं ले सकती अंतरिक्ष में तैरने के लिए  मदारो का पास लाज़िम है शम्सी चकरी को उल्टा घुमाने से रुपहली झूला टूट जाएगा दूरी व  नज़दीकी को पसे पुष्त डालकर हम प्लूटो  को घना गन नग़मे साकिन ज़मीन के अकब से सुना सकते हैं ज़हनी सुबक गांम घोड़ों को मेहमेज़े वहशत लगाकर दरियाओं का सीना चीरते जा निकलें  परले किनारे पर जहां उजली पोशाक  पहने  नींद हमारी मुन्तजि़र है हमारे दिल पर झुर्रियों का अंबार लगा है हमारी पोरों के प्यालों से दुआ चुरा ली गई है तसकीन‌ की र्ग़ज़ से बेदारी हमारी  आंखों को नोच लेगी "खा़लीपन में नींद की ख्वा़हिश करना बेवकूफी के मुतरादिफ़है अली जयूफ़ خالی پن میں نیند کی خواہش           غشی نیند کی کہکشاؤں میں  پرویش کرنے کیلئے مدار متعین نہیں کر سکتی۔ ہم اوندھے منہ رینگ کر بھی  تیرتے سورج  سے آگے نہیں نکل سکتے۔ ہ

Nazm _Raqs kro_ Poet_Rashid Malik

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रक़्स करो दीवाना वारी रक़्स करो यू रक़्स करो के अंग अंग थिरके  थिरके शिरियानों में ख़ूं यूं रक़्स करो रक़्स करो कि झूमे जंगल ,बेलें, अंबर, धरती ,सारा आलम ऐसे रक़्स करो रक़्स करो कि ज़हन के दरवाजों से वहशत बिगडूट बाहर भागे ऐसे रक़्स करो रक़्स करो यूं कि जिस्म वक्त़ के क़ैद से बाहर हो जाए यूं रक़्स करो रक़्स करो यूं नूरी हैरत से थम जाए देखने वालों का ग़म जाए मन की कालक धुल जाए यू रक़्स करो रक़्स करो यूं सेहराओ में हरियाली हो जाए हर एक शक्ल निराली हो जाए यूं रक़्स करो रक़्स करो यूं बंजर आंखों में नम  आए ज़िंदा लाशों में दम आए ऐसे रक़्स करो रक़्स करो यूं  आंखों की बिनाई आए बहरे को आवाज़ बुलाए बहरा मारे शौक़ के गाए रक़्स करो दीवाना वारी रक़्स करो राशिद मलिक رقص کرو دیوانہ واری رقص کرو  یوں رقص کرو کہ انگ انگ تھرکے  تھرکے شریانوں میں خوں یوں رقص کرو رقص کرو کہ جھومیں جنگل ، بیلے ، امبر ، دھرتی،  سارا عالم ایسے رقص کرو  رقص کرو کہ ذہن کے دروازوں سے وحشت بگڈٹ باہر بھاگے ایسے رقص کرو  ‏رقص کرو یوں جسم وقت کے قید سے باہر ہو جائے یوں رقص کرو  ‏  ‏رقص کرو یوں نوری حیرت سے تھم جائے   ‏د

Sher _Poet _Asif Mahmood Kaifi

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   तुम्हारा नाम भी आएगा उसके होठों पर  सदाएं लौट के आती है इंतजा़र करो आसिफ़ महमूद कैफ़ी تمہارا نام بھی آئے گا اس کے ہونٹوں پر صدائیں لوٹ کے آتی ہیں انتظار کرو ۔ آصف محمود کیفی

Ghazal _Poet Syed Ali shahrukh

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चमन मिले भी तो सेहरा शुमार होते हैं यह हादसात यहां बार-बार होते हैं यह आरजूं है उन बस्तियों में जा निकलूं कि अहले जर्फ़ जहां बेशुमार होते हैं वह जितनी देर में कश्ती क़रीब लाते  हैं हम इतनी देर में दरिया के पार होते हैं हमारे साथ मोहब्बत न कर दिलासा दे हम ऐसे लोग ग़रीबे दयार होते हैं विसाल व हिज़्र  को यकजा करेंगे हम कैसे यह दो किनारे कहां हम कनार होते हैं ना आप हौसला देते हैं रोने वालों को ना आप शामिले चीख़ो पुकार  होते हैं अजीब रंगे वफा है हमारी महफ़िल में हमारे यार ज़माने के यार होते हैं हम अपने दर्द तो तहरीर कर नहीं सकते तुम्हारे जि़क्र पर बस शर्मसार होते हैं सैयद अली शाहरुख چمن ملیں بھی تو صحرا شمار ہوتے ہیں یہ حادثات یہاں بار بار ہوتے ہیں  یہ آرزو ہے کہ ان بستیوں میں جا نکلوں  کہ اہل ظرف جہاں بے شمار ہوتے ہیں  وہ جتنی دیر میں کشتی قریب لاتے ہیں  ہم اتنی دیر میں دریا کے پار ہوتے ہیں  ہمارے ساتھ محبت نہ کر دلاسہ دے ہم ایسے لوگ غریب دیار ہوتے ہیں  وصال و ہجر کو یکجا کریں گے ہم کیسے یہ دو کنارے کہاں ہم کنار ہوتے ہیں  نہ آپ حوصلہ دیتے ہیں رونے والوں کو  نہ آپ شامل چیخ و پکا

Nazm -D'dum Dugdugi _Poet_Zulqernain Hasni

Nazm _D'dum Dugdugi Poet_Zulqernain Hasni नसीबन का कुत्ता सुरीला नहीं पर  गज़ब भोक्ता है उसे जब भी मौका मिले काटता है मदारी का बंदर बिला नोश है उसे रोज व शब के तमाशे में दुनिया का कब होश है नसीबन का कुत्ता मदारी के बंदर से डरता नहीं है मगर वह किसी और का दम अकेले में भरता नहीं है डडम डुगडुगी है  डडम डुगडुगी यह तूने मेरे साथ अपने चहिते की क्यों बात की नोकीले हुए बेल ने खेत कैसे उजाड़ा शब व रोज़  एक बे सरोपा मोहब्बत ने कितना बिगाड़ा फ़साहत बलाग़त कहां तेल लेने गई है समाजी रवय्यै पर इतनी नहूसत सी क्यों छा गई है तुम ही चाहिए हो  अभी चाहिए हो डडम डुगडुगी है  डडम डुगडुगी यह तूने मेरे साथ है अपनी चहेती की क्यों बात की सलीके़ तरीके पे तुफ़ है  नहीं तो नफा़सत पे उससे भी ज़्यादा अभी तुम ... बताओ ना अपना इरादा. टपकती हुई राल ने क्या दिखाया... ना गलती हुई दाल से   बारहा  बस ख़्याली पुलाव पकाया तुम्हें क्यों बताऊं मेरे मुंह में खाते हुए बाल आया यह सर्कस है लेकिन  तबेले में बांधी हुई शेरनी.... कोई जा़यक़ा अब रसीला नहीं है नसीबन का कुत्ता सुरीला नहीं है मगर उसकी वहशत हुई डडम डुगडुगी है  डडम डूगडुग

Nazm _Saheli_ Poet Rashid Imam

Nazm -Saheli -Poet-Rashid Imam सहेली सहेली  ख़ुदा की पहेली कहानी सुनो गी हमारी कहानी तुम्हें याद है जब मैं मिट्टी का बुत था और हम एक नफ़स़ थे तुम्हें याद होगा वह रूहो का मेला जहां हम मिले थे वहां से निकलकर जमीं नाम के एक जज़ीरे पे हूं हां मगर तुम कहीं जा चुकी हो  कहां हो इधर में ज़मीं पर नए जा़यचे खींचकर तुम्हें ढूंढने चल पड़ा हूं कोलंबस के नक्शे पिकाचू के हाथों से पेंटिंग किए मार्कोपोलो जैसे सफर ज़ाद लोगों को साथी किया तूर ए सीना की चोटी से उतरा कहीं मिस्र और शहरे बाबल से होता हुआ अहले फारस के दरबारियों तक गया मैं मुअर्रिख़ के पन्ने भटकता फिरा और जंगो के मंज़र से सीना भरा मै क़दीमी ज़मानो  से अब तक फीरा हूं मगर तुम कहां हो सहेली  खुदा की पहेली समुंदर के परले  कई एक परिस्तां बड़े देवताओं के मसनद लगे वह इलाके़  दरख़्तों के पत्ते अनाजों की फ़सलें सभी कारखा़ने ज़माने की सड़कें जहाज़ों के रस्ते सभी छान‌ मारे मैं  क़रनों के सीने पे चलता हुआ तुझ तलक आ गया हूं तो पिटबुल (pit bull) के गीतों से बाहर मिलो अच्छे केफ़े के शीशे की न ने के अंधेरे से हटकर किसी रोशनी में मिलो एक सिगरेट इकट्ठे जलाएं मे

Sher _ Poet _ Shahla khan

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मैं सीपियां ही चुनती हूं साहिल की रेत से मैं ढूंढती ही कब हूं के मोती पड़ा मिले शहला ख़ान میں سیپیاں ہی چنتی ہوں ساحل کی ریت سے میں ڈھونڈتی ہی کب ہوں کہ موتی پڑا ملے Shehla Khan

Ghazal _Poet _ Atta Ur Rehman Qazi

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Ghazal _ Shakh der shakh शाख़ दर‌ शाख़ कोई जख़्म सजाने की सेवा काम ही क्या है तेरा हिज्र मनाने की सिवा पूछते क्या हो चीराग़ो से हवा का नाता याद कुछ हो भी तो बुझते चले जाने कि सिवा और भी शाम कोई, शामे जुदाई से अलग और भी काम कोई, बोझ उठाने के सिवा हम के थे अक्से गरिज़ां के गिरफ्तार सो‌ हम खुद से मिलते भी कहां ,आएना ख़ाने कि सिवा वह तो यूं है कि अता पासे जुनूं था वरना काम कुछ और भी  थे ख़ाक उड़ाने के सिवा अता उर हमान क़ाज़ी شاخ در شاخ کوئی زخم سجانے کے سوا کام ہی کیا ہے تیرا ہجر منانے کے سوا پوچھتے کیا ہو چراغوں سے ہوا کا ناتا یاد کچھ ہو بھی تو بجھتے چلے جانے کے سوا اور بھی شام کوئی, شام_ جدائی سے الگ اور بھی کام کوئی، بوجھ اٹھانے کے سوا ہم کہ تھے عکس_ گریزاں کے گرفتار  سو ہم خود سے ملتے بھی کہاں آئینہ خانے کے سوا وہ تو یوں ہے کہ عطا پاس_ جنوں تھا ورنہ کام کچھ اور بھی  تھے خاک اڑانےکے سوا عطاء الرحمٰن قاضی

Ghazal _ Poet : - Zeeshan Murtaxa

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Ghazal  Poet _ zeeshan Murtaxa  किनारे आबे रवां खोई कश्तियों से उधर मैं जी रहा हूं सराबों की सरहदों से उधर बसी थी उसकी निगाहों में ऐसी ख़ामोशी मैं चौंक चौंक पड़ा दिल की धड़कनों से उधर ये किस सदा कि ताक़्क़ुब में चल पड़े हम लोग उफ़क़ से दूर कहीं नीले पानियों से उधर थे बंद शहर के ख़स्ता मकां ज़मानों से सो झांकते ही नहीं लोग खिड़कियों से उधर है एक परी के तसर्रुफ़  में इन दिनों जी़शान  वह झील देखते हो सब्ज़ टहनियों से उधर जी़शान मुर्तजा़   کنارِ آب رواں کھوئی کشتیوں سے اُدھر  میں جی رہا ہوں سرابوں کی سرحدوں سے اُدھر  بسی تھی اس کی نگاہوں میں ایسی خاموشی  میں چونک چونک پڑا دل کی دھڑکنوں سے اُدھر  یہ کس صدا کے تعاقب میں چل پڑے ہم لوگ  افق سے دور کہیں نیلے پانیوں سے اُدھر  تھے بند شہر کے خستہ مکاں زمانوں سے  سو جھانکتے ہی نہیں لوگ کھڑکیوں سے اُدھر ہے اک پری کے تصرف میں ان دنوں ذی شان وہ جھیل دیکھتے ہو سبز ٹہنیوں سے اُدھر  ذی شان

Ghazal. _ Poet _Komal Joya

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  नए सफ़र के इरादे से जब मैं जा रही थी मैं पूछ थोड़ी रही थी बता रही थी कमाल ए हब्स में दोनों की ख़ूब जमने लगी मेरे चिराग़ की मुर्शिद कभी हवा रही थी सभी सराह रहे थे ये खुशमिज़ाजी मगर मेरे मज़ाक का वहशत बुरा मना रही थी यह सब्ज़गी नहीं यह चोट थी दरख़्तो की जो शाख़े ज़र्द  की वीरानियो   को खा रही थी  सुख़न की पहली तिलावत पर सब सकूत में थे मै नेकियों की तरह नाम भी कमा रही थी और अब यह तर्क ए ताल्लुक भी क्यों छुपाऊं कि मैं अगर तुम्हारी रही थी तो बरमला रही थी अब इस गुनाह का कफ्फारा हो अदा कैसे मैं मुस्कुरा के उदासी का दिल दुखा रही थी कोमल जोया نئے سفر کے ارادے سے جب  میں جارہی تھی میں پوچھ تھوڑی رہی تھی اسے بتا رہی تھی کمالِ حبس میں دونوں کی خوب جمنے لگی مرے چراغ کی مرشد کبھی ہوا رہی تھی سبھی سراہ رہے تھے یہ خوش مزاجی مگر مرے مذاق کا وحشت برا منا رہی تھی یہ سبزگی نہیں یہ چوٹ تھی درختوں کی جو شاخِ زرد کی ویرانیوں کو کھا رہی تھی سخن کی پہلی تلاوت پہ سب سکوت میں تھے میں نیکیوں کی طرح نام بھی کما رہی تھی اور اب یہ ترکِ تعلق بھی کیوں چھپاؤں کہ میں اگر تمہاری رہی تھی تو برملا

Ghazal _ Farrukh Adeel

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इसलिए भी खालो खद झुलसे हुए पाए गए हम पराई आग में जलते हुए पाए गए दशत को सर सब्ज  देखा रात मैंने ख़्वाब में सुबह  को दरिया मेरे सूखे हुए पाए गए हम वहां पर भी बिखेर आए हैं अपनी रोशनी जिस जगह जुगनू कई रोते हुए पाए गए बारहा हाथों से तेरे टूटने के बावजूद जब भी हम तुझसे मिले हंसते हुए पाए गए मौत से आंखें मिलाकर बातें करने वाले लोग ज़िंदगी के सामने सहमे हुए पाए गए सिर्फ इतना याद है लिपटे थे‌ इक साए से हम देखते ही देखते बिखरे हुए पाए गए हम शजर वह है कि जिन पर बारिशें  बे फ़ायदा भीग कर भी प्यास से मरते हुए पाए गए फर्रुख  अदील غزل  اِس لیے بھی خال و خد جھلسے ہوئے پائے گئے  ہم پرائی آگ میں جلتے ہوئے پائے گئے دشت کو سرسبز دیکھا رات میں نے خواب میں صبح کو دریا مرے سوکھے ہوئے پائے گئے  ہم وہاں پر بھی بکھیر آئے ہیں اپنی روشنی  جس جگہ جگنو کئی روتے ہوئے پائے گئے بارہا ہاتھوں سے تیرے ٹوٹنے کے باوجود  جب بھی ہم تجھ سے ملے ہنستے ہوئے پائے گئے  موت سے آنکھیں ملا کر بات کرنے والے لوگ زندگی کے سامنے سہمے ہوئے پائے گئے  صرف اتنا یاد ہے لپٹے تھے اک سائے سے ہم  دیکھتے ہی دیکھتے بکھرے ہوئے پائے گئے ہم شجر وہ ہی

Sher _ Atta_ur_ Rahman Qazi

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शेर अभी से कैसे बताऊं के क्या है पेशे नज़र अभी तो दिल को तेरी कैद से निकलना है अताउर रहमान क़ाज़ी ابھی سے کیسے بتاؤں کہ کیا ہے پیش ِ نظر ابھی  تو  دل  کو  تری  قید  سے  نکلنا  ہے عطاءالرحمن قاضی

Ghazal .Poet _ Faqeeh Haider

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हवा के सामने हर फूल से लिपटना है बिखरता जिस्म हूं मुझको यूं ही सिमटना है  कोई सितारा कोई चांद चाहिए तो बता तेरे फकीर ने कश़कोल को उलटना है मैं तेरा हिज्र लिए सांस ले रहा हूं मगर ये वक़्त लगता नहीं यार मुझसे कटना है हमारे पेट ख़ुदा भर रहा है मिस्रों से हमारे हक़ में हमेशा यह रिज्क  बटना है ज़मीन राख लगे और आसमान धुआं न जाने कैसे कहां कब ये खौफ छटना है ये सरहदों में मुक़य्यद मोहब्बतें कब तक गुले "लहोर" हूं मैं तू "हवाए" पटना है हमारे बाज़ू कटेंगे अलम संभालते वक़्त हमारी मशको ने दरिया किनारे फटना है अधूरे ख़्वाब में गुंजाइश ए वफ़ा क्या हो तुझे पढ़ा के मुझे जाने कितना घटना है हर एक चीज की होती है बाज़गश्त फ़कीह वह जा रहा है अगर तो उसे पलटना है फ़कीह हैदर     ہوا کے سامنــے ہر پھـــول سے لپٹنا ہے   بکــھرتا جســـم ہوں مجھ کو یونہی سمٹنا ہے  کوئـــی ستارہ کوئـــی چاند چاہیـــے تو بتا ترے فقیر نے کشـــکول کو الٹنا ہے   میں تیرا ہجر لیے سانس لے رہا ہوں مگر  یہ وقت لگتا نہـــیں یار مجھ سے کٹنا ہے   ہمارے پیٹ خـــدا بھـــر رہا ہے مصرعوں سے   ہمارے حـــق میں ہمیشہ