तुम उदास लड़की हो जिंसियत के मारों को शेर क्यों सुनाती हो बेज़मीर लोगों को ख़्वाब क्यों दिखाती हो? तुम उदास लड़की हो और ख़ास लड़की हो दे चिराग़ राहों में दीप क्यों जलाती हो फूल क्यों जाती हो? लोग तो फ़रेबी हैं तुम नहीं हो लोगों सी क्यों उन्हें मोहब्बत का ज़ायका बताती हो? जिंसियत के मारो को शेर क्यों सुनाती हो ? आसिफ़ महमूद कैफी़ نظم ۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔تم اداس لڑکی ہو جِنسِیَت کے ماروں کو شعر کیوں سناتی ہو؟ بے ضمیر لوگوں کو خواب کیوں دکھاتی ہو؟ تم اُداس لڑکی ہو ۔ اور خاص لڑکی ہو! بے چراغ راہوں میں دِیپ کیوں جلاتی ہو؟ پھول کیوں سجاتی ہو؟؟ لوگ تَو فریبی ہیں ۔ تم نہیں ہو لوگوں سی! کیوں انہیں محبّت کا ذائقہ بتاتی ہو؟ جِنسِیَت کے ماروں کو شعر کیوں سناتی ہو؟؟ آصؔف محمود کیفی
हवा के सामने हर फूल से लिपटना है बिखरता जिस्म हूं मुझको यूं ही सिमटना है कोई सितारा कोई चांद चाहिए तो बता तेरे फकीर ने कश़कोल को उलटना है मैं तेरा हिज्र लिए सांस ले रहा हूं मगर ये वक़्त लगता नहीं यार मुझसे कटना है हमारे पेट ख़ुदा भर रहा है मिस्रों से हमारे हक़ में हमेशा यह रिज्क बटना है ज़मीन राख लगे और आसमान धुआं न जाने कैसे कहां कब ये खौफ छटना है ये सरहदों में मुक़य्यद मोहब्बतें कब तक गुले "लहोर" हूं मैं तू "हवाए" पटना है हमारे बाज़ू कटेंगे अलम संभालते वक़्त हमारी मशको ने दरिया किनारे फटना है अधूरे ख़्वाब में गुंजाइश ए वफ़ा क्या हो तुझे पढ़ा के मुझे जाने कितना घटना है हर एक चीज की होती है बाज़गश्त फ़कीह वह जा रहा है अगर तो उसे पलटना है फ़कीह हैदर ہوا کے سامنــے ہر پھـــول سے لپٹنا ہے بکــھرتا جســـم ہوں مجھ کو یونہی سمٹنا ہے کوئـــی ستارہ کوئـــی چاند چاہیـــے تو بتا ترے فقیر نے کشـــکول کو الٹنا ہے میں تیرا ہجر لیے سانس لے رہا ہوں مگر یہ وقت لگتا نہـــیں یار مجھ سے کٹنا ہے ہمارے پیٹ خـــدا بھـــر رہا ہے مصرعوں سے ہمارے حـــق میں ہمیشہ
Ghazal _ Shakh der shakh शाख़ दर शाख़ कोई जख़्म सजाने की सेवा काम ही क्या है तेरा हिज्र मनाने की सिवा पूछते क्या हो चीराग़ो से हवा का नाता याद कुछ हो भी तो बुझते चले जाने कि सिवा और भी शाम कोई, शामे जुदाई से अलग और भी काम कोई, बोझ उठाने के सिवा हम के थे अक्से गरिज़ां के गिरफ्तार सो हम खुद से मिलते भी कहां ,आएना ख़ाने कि सिवा वह तो यूं है कि अता पासे जुनूं था वरना काम कुछ और भी थे ख़ाक उड़ाने के सिवा अता उर हमान क़ाज़ी شاخ در شاخ کوئی زخم سجانے کے سوا کام ہی کیا ہے تیرا ہجر منانے کے سوا پوچھتے کیا ہو چراغوں سے ہوا کا ناتا یاد کچھ ہو بھی تو بجھتے چلے جانے کے سوا اور بھی شام کوئی, شام_ جدائی سے الگ اور بھی کام کوئی، بوجھ اٹھانے کے سوا ہم کہ تھے عکس_ گریزاں کے گرفتار سو ہم خود سے ملتے بھی کہاں آئینہ خانے کے سوا وہ تو یوں ہے کہ عطا پاس_ جنوں تھا ورنہ کام کچھ اور بھی تھے خاک اڑانےکے سوا عطاء الرحمٰن قاضی
Masha Allah ... बेहतरीन عمدا
ReplyDeleteبہت بہت شکریہ
Deleteسلامت رہیں