Ghazal Poet _ zeeshan Murtaxa किनारे आबे रवां खोई कश्तियों से उधर मैं जी रहा हूं सराबों की सरहदों से उधर बसी थी उसकी निगाहों में ऐसी ख़ामोशी मैं चौंक चौंक पड़ा दिल की धड़कनों से उधर ये किस सदा कि ताक़्क़ुब में चल पड़े हम लोग उफ़क़ से दूर कहीं नीले पानियों से उधर थे बंद शहर के ख़स्ता मकां ज़मानों से सो झांकते ही नहीं लोग खिड़कियों से उधर है एक परी के तसर्रुफ़ में इन दिनों जी़शान वह झील देखते हो सब्ज़ टहनियों से उधर जी़शान मुर्तजा़ کنارِ آب رواں کھوئی کشتیوں سے اُدھر میں جی رہا ہوں سرابوں کی سرحدوں سے اُدھر بسی تھی اس کی نگاہوں میں ایسی خاموشی میں چونک چونک پڑا دل کی دھڑکنوں سے اُدھر یہ کس صدا کے تعاقب میں چل پڑے ہم لوگ افق سے دور کہیں نیلے پانیوں سے اُدھر تھے بند شہر کے خستہ مکاں زمانوں سے سو جھانکتے ہی نہیں لوگ کھڑکیوں سے اُدھر ہے اک پری کے تصرف میں ان دنوں ذی شان وہ جھیل دیکھتے ہو سبز ٹہنیوں سے اُدھر ذی شان
हवा के सामने हर फूल से लिपटना है बिखरता जिस्म हूं मुझको यूं ही सिमटना है कोई सितारा कोई चांद चाहिए तो बता तेरे फकीर ने कश़कोल को उलटना है मैं तेरा हिज्र लिए सांस ले रहा हूं मगर ये वक़्त लगता नहीं यार मुझसे कटना है हमारे पेट ख़ुदा भर रहा है मिस्रों से हमारे हक़ में हमेशा यह रिज्क बटना है ज़मीन राख लगे और आसमान धुआं न जाने कैसे कहां कब ये खौफ छटना है ये सरहदों में मुक़य्यद मोहब्बतें कब तक गुले "लहोर" हूं मैं तू "हवाए" पटना है हमारे बाज़ू कटेंगे अलम संभालते वक़्त हमारी मशको ने दरिया किनारे फटना है अधूरे ख़्वाब में गुंजाइश ए वफ़ा क्या हो तुझे पढ़ा के मुझे जाने कितना घटना है हर एक चीज की होती है बाज़गश्त फ़कीह वह जा रहा है अगर तो उसे पलटना है फ़कीह हैदर ہوا کے سامنــے ہر پھـــول سے لپٹنا ہے بکــھرتا جســـم ہوں مجھ کو یونہی سمٹنا ہے کوئـــی ستارہ کوئـــی چاند چاہیـــے تو بتا ترے فقیر نے کشـــکول کو الٹنا ہے میں تیرا ہجر لیے سانس لے رہا ہوں مگر یہ وقت لگتا نہـــیں یار مجھ سے کٹنا ہے ہمارے پیٹ خـــدا بھـــر رہا ہے ...
Ghazal _ Shakh der shakh शाख़ दर शाख़ कोई जख़्म सजाने की सेवा काम ही क्या है तेरा हिज्र मनाने की सिवा पूछते क्या हो चीराग़ो से हवा का नाता याद कुछ हो भी तो बुझते चले जाने कि सिवा और भी शाम कोई, शामे जुदाई से अलग और भी काम कोई, बोझ उठाने के सिवा हम के थे अक्से गरिज़ां के गिरफ्तार सो हम खुद से मिलते भी कहां ,आएना ख़ाने कि सिवा वह तो यूं है कि अता पासे जुनूं था वरना काम कुछ और भी थे ख़ाक उड़ाने के सिवा अता उर हमान क़ाज़ी شاخ در شاخ کوئی زخم سجانے کے سوا کام ہی کیا ہے تیرا ہجر منانے کے سوا پوچھتے کیا ہو چراغوں سے ہوا کا ناتا یاد کچھ ہو بھی تو بجھتے چلے جانے کے سوا اور بھی شام کوئی, شام_ جدائی سے الگ اور بھی کام کوئی، بوجھ اٹھانے کے سوا ہم کہ تھے عکس_ گریزاں کے گرفتار سو ہم خود سے ملتے بھی کہاں آئینہ خانے کے سوا وہ تو یوں ہے کہ عطا پاس_ جنوں تھا ورنہ کام کچھ اور بھی تھے خاک اڑانےکے سوا عطاء الرحمٰن قاضی
بہت خوب
ReplyDeleteبہت شکریہ
Deleteاس محبت اور عزت افزائی کیلئے سراپا سپاس ہوں پیاری دوست ، سدا جئیں ۔♥
ReplyDelete