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Showing posts from September, 2021

Zamir Qais

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हवा के साथ कट रही है उम्र साज़ बाज़ में बना रहा हूं बादबानी कश्तियां जहाज़ में बदन के ज़लज़लों ने दिल को भी हिला के रख दिया लगेगा वक़्त कुछ जुनूं को अपने इरतेकाज़ में सड़क पहाड़ से उतर के वादियों में खो गई धंसा हुआ है ज़हन अभी बर्फ़ के गुदाज़ में ख़ियाम जल रहे हैं दशत में ख़ुदा के सामने बिलक के रो रही हैं सय्यदानियां नमाज़ में हम ऐसे अहद_ए_ बा हुनर में है जहां पे दोस्तो छुपी हुई है बात, बात में तो राज़, राज़ में नहीं नहीं यह तंज़ बंदगी पे तो ज़रा नहीं झुके हुए हैं हम जो बारगाह_ए_बे नयाज़ में मिलेगा लुत्फ़े ज़िंदगी क़दम क़दम पे दोस्ता कहीं-कहीं नशीब में कहीं-कहीं फ़राज़ में करूंगा तर्क_ए_इश्क़ पर मैं बहस जो़र_ओ_शोर से भर लूंगा दम ज़रा सा हर दलील_ए_बे ज्वाज़ में बस एक ज़ख्म हम लिए फिरे गली-गली सदा जो इत्तेफ़ाकन आ गया था चश्म_ए_चारा साज़ में है मेरे लफ्ज़ लफ्ज़ में अब उसका हुसन_ए_साहरी जो हूर_ए_ज़ाद कल मिली थी मुझको बुज विलाज़ में कोई अताओं के लिए मुक़र्ररा घड़ी नहीं यही तो फ़र्क़ है मसीह व सांता क्लॉज़ में वह इसलिए कि झुंड में सभी पर छांव है मेरी मैं जल रहा हूं सिर्फ़ अपने जुर्म_ए_इम्तिय

Ghazal_Poet_Tanveer Qazi

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غزل ۔۔۔۔۔۔۔۔۔ سمندر سے جو میری گُفتگُو تھی اُسے مچھلی بھی سُن کر سُرخ رُو تھی کہیں جاری تھی پیوند کاریِ دل وہ نیلی آنکھ مائل بہ رفُو تھی ہمیں موسم مقیّد کر چکا تھا صدائے آئینہ بھی خُوش گُلو تھی ہرن پہلو بچاتے ہف گئے تھے ہماری خاک اُڑتی کُو بہ کُو تھی لگے وہ اُون کا بیوپار کرنے کوئی ایسی چراگاہوں میں بُو تھی کوئی لمحہ گِھرا تھا پانیوں میں کوئی حیرت کنارِ آب جُو تھی سبھی موزیل کی پوشاک میں تھے چہار اطراف اک منٹو کی بُو تھی مسافر کشتیوں میں اونگھتے تھے کسی قزاق کی آنکھوں میں لُو تھی کبھی آتے شجر پینگیں جُھلاتے کُھدے ناموں کے بھیتر آرزو تھی ابھی کچھ بھید عُریاں ہو رہے تھے ابھی کچھ کائی کے نیچے نمُو تھی tanveerqaazzii समुंदर से जो मेरी गुफ़्तगु थी उसे मछली भी सुन कर सुर्ख़ रू थी कहीं जारी थी पेवंद कारी_ए_दिल वह नीली आंख मायल ब रफ़ू थी हमें मौसम मुक़य्यद कर चुका था सदा_ए_आईना भी ख़श गुलू‌ थी हरण पहलू बचाते हफ़ गए थे हमारी खा़क उड़ती कू ब कू थी लगे वह ऊन का व्यापार करने कोई ऐसी चरागाहों ‌ में हू‌ थी कोई लम्हा घिरा था पानियों में कोई हैरत किनारे आब जू थी स

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#Urdu Poetry #Hindi Poetry

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Sheir_Poet_Zubair Qaisar

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कुछ और भी मुझे लगने लगी हसीं दुनिया वो शहर_ए_ख़्वाब से निकला है मुस्कुराते हुए ज़ुबैर क़ैसर کچھ اور بھی مجھے لگنے لگی حسیں دنیا وہ شہر ۔ خواب سے نکلا ہے مسکراتے ہوئے ۔۔۔۔ ۔۔۔ زبیر قیصر

Ghazal_Poet_Maouvez Hasan

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उदासी चिड़चिड़ापन रतजगा है कोई आसेब‌ मुझ में पल रहा है जहां की‌ इरतकाई साजि़शों में जमीं एक मो'जजा़ती हादसा है मेरे अंदर का आवारा मुसाफ़िर ख़्यालों की ट्रैफ़िक में फंसा है ख़सारों पर भी खुल कर हंस रहे हैं हमारा कर्ब बूढ़ा हो गया है कई हफ़्तों से सरवत पढ़ रहा था और अब दिल पटरियों पर चल रहा है मुसव्विर ने मेरा चेहरा बनाकर ख़सारा कैनवस पर धर दिया है तुम्हारी ओर देखा, और देखा नदी का रंग पीला पड़ गया है मैं उसके वसवसों में आ गया हूं वह जिससे टेलिफो़निक राब्ता है घड़ी की सुइयां उल्टी घुमाकर मुक़द्दर हम को थप्पड़ मारता है मोहब्बत की लड़ाई में मु'अव्विज़ तकल्लुफ़ इबतदाई सानेहा है मु'अव्विज़ हसन اداسی چڑچڑاپن رتجگا ہے  کوئی آسیب مجھ میں پل رہا ہے  جہاں کی ارتقائی سازشوں میں  زمیں اک معجزاتی حادثہ ہے  مرے اندر کا آوارہ مسافر  خیالوں کی ٹریفک میں پھنسا ہے خساروں پر بھی کھل کر ہنس رہے ہیں ہمارا کرب بوڑھا ہو گیا ہے   کئی ہفتوں سے ثروت پڑھ رہا تھا اور اب دل پٹریوں پر چل رہا ہے  مصور نے مرا چہرہ بنا کر  خسارہ کینوس پر دھر دیا ہے تمہاری اور دیکھا، اور دیکھا ندی کا رنگ پیلا پڑ گیا ہے   م

Ghazal_, Poet_Faqeeh Haider

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कूफ़ियो जैसे मोमनीन के नाम यह गज़ल है मुनाफ़िकी़न के नाम एक नारा खि़रद की हालत में दिन-ब-दिन बढ़ते जाहिलीन के नाम ख़ाक के साथ हो गया हूं ख़ाक और मैं क्या करूं ज़मीन के नाम यह मेरा आख़री तमाशा है सब की सब दाद शायकी़न के नाम रोज़ लिखता हूं पानियों पर मैं कर्बला तेरे जा़यरीन के नाम एक तवायफ़ के जिस्म पर लिखे हैं शहर के सारे सालेहीन के नाम फ़कीह ‌हैदर کوفیوں جیسے مومنین کے نام  یہ غزل ہے منافقین کے نام  ایک نعرہ خرد کی حالت میں  دن بہ دن بڑھتے جاہلین کے نام  خاک کے ساتھ ہو گیا ہوں خاک  اور میں کیا کروں زمین کے نام یہ مرا آخری تماشاہے  سب کی سب داد شائقین کے نام   روز لکھتا ہوں پانیوں پر میں  کربلا تیرے زائرین کے نام  اک طوائف کے جسم پر لکھے ہیں  شہر کے سارے صالحین کے نام  فقیہ حیدر

Ghazal_Poet_Zeeshan Murtaxa

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कोई चिराग़ कोई ताक़ मुन्ताजि़र है मेरा इक आइना पस_ए_अफ़लाक मुन्तजि़र है मेरा मैं इस जहान से निकला तो ये खुला मुझ पर कोई जहान तहे ख़ाक मुन्तजि़र है मेरा ये अंदरून से आती है एक सदा... कि कोई दरून_ए_दश्त.. .क़बा चाक!!  मुन्तजि़र है मेरा इसी ख़्याल में पहरों सुलग चुका हूं मैं कि इक जुनू़ं तहे पेचाक मुन्तजि़र है मेरा मेरे नसीब में लिखी है ये फ़लक गर्दी कोई ख़ला पसे आफा़क़ मुन्तजि़र है मेरा वह इक झील तेरी राह देखती है अभी वह इक सितारा_ए_बेबाक मुन्तजि़र है मेरा ज़ीशान मुर्तजा़ تازہ غزل کوئی چراغ کوئی طاق منتظر ہے مرا اک آئینہ پس ِ افلاک منتظر ہے مرا میں اس جہان سے نکلا تو یہ کھلا مجھ پر کوئی جہان تہہ ِ خاک منتظر ہے مرا یہ اندرون سے آتی ہے اک صدا۔۔ کہ کوئی   درون ِ دشت .. قبا چاک !! منتظر ہے مرا اسی خیال میں پہروں سلگ چکا ہوں میں  کہ اک جنوں تہہِ پیچاک منتظر کے مرا  مرے نصیب میں لکھی ہے یہ فلک گردی کوئی خلا پسِ آفاق منتظر ہے مرا  وہ ایک جھیل تری راہ دیکھتی ہے ابھی  وہ اک ستارہء بے باک منتظر ہے مرا ذی شان مرتضےٰ

Sheir_Poet_Rahat Sarhadi

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فریب کھایا ہے ایسا کہ زہر لگتی ہے  مجھے تو لوگوں کے چہروں پہ مسکراہٹ تک  راحتؔ سرحدی फ़रेब खाया है ऐसा कि ज़हर लगती है मुझे तो लोगों के चेहरे पे मुस्कुराहाट तक राहत सरहदी

Sheir_Poet_yusuf Khalid

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محبت کے ہزاروں رنگ ہیں اک رنگ یہ بھی ہے کسی کو سوچنا محسوس کرنا اور چپ رہنا یوسف خالد मुहब्बत के हज़ारों रंग हैं इक रंग ये भी है किसी को सोचना महसूस करना और चुप रहना यूसुफ खालिद

Sheir_Poet_Azhar Fragh

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کسی نے دل نہیں دیکھا ہمارا کشادہ صرف پیشانی نہیں ہے  اظہر فراغ किसी ने दिल नहीं देखा हमारा कुशादा सिर्फ़ पैशानी नहीं है अज़हर फ़राग़

Sheir_Poet_Arshad Malik

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تم کیا گئے۔۔۔۔ کہ وقت کا احساس مر گیا راتوں کو جاگتے رهے اور دن میں سو گئے ارشد ملک तुम क्या गए .. कि वक़्त का एहसास मर गया रातों को जागते रहे और दिन में सो गाए अरशद मालिक

Sheir_Poet_Zakariya Shaz

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کسی سے فاصلہ رکھا ہوا ہے نہ کوئی سلسلہ رکھا ہوا ہے زکریا شاذ किसी से फा़सला रखा हुआ है न कोई सिलसिला रखा हुआ है ज़करिया शाज़

Sheir_Poet Shahla Khan

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میں ساحلوں پہ دیر سے تھی منتظر تری تو بھی کسی کنارے مجھے ڈھونڈتا رہا  شہلا خان मै साहिलों पे देर से थी मुन्तजि़र तेरी तू भी किसी किनारे मुझे ढूंढता रहा शहला ख़ान

Ghazal_Poet_Azra Naaz

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न हसीन मिसले गुलाब हूं न किसी की आंख का ख़्वाब हूं तेरी ज़िंदगी की किताब का मगर एक छोटा सा बाब हूं मेरे हर्फ़ हर्फ़ में नुद्रतें, मेरे बाब बाब मे हैरतें कभी तू ने जिस को छुआ नही, मैं वो एक कोरी किताब हूं मेरी अपनी शक्ल नही कोई तू ने जैसे ढाला मै ढल गई है ये फ़ैसला तेरे हाथ में मैं अज़ाब हूं कि सवाब हूं तेरे ज़ौक_ए_मय के शबाब को नया चाहिए कोई अब नशा नशा जिस का उतरे न देर तक, वही मै पुरानी शराब हूं ये जहान बहर है बेकरां मेरी हैसियत ही भला है क्या मेरा नाम क्या मेरी जा़त क्या मैं तो सिर्फ़ मिसले हबाब हूं जो शरीक_ए_जुर्म था हमनवा वो तो जाने कब का रिहा हुआ  हुआ माजरा मेरे साथ क्या मैं अभी भी जे़र_ए_इताब हूं अज़रा नाज़  U.K غزل عذرا ناز یو کے ---------- نہ حسین مثل ِ گلاب ہوں نہ کسی کی آنکھ کا خواب ہوں تری زندگی کی کتاب کا مگر ایک چھوٹا سا باب ہوں مرے حرف حرف میں ندرتیں مرے باب باب میں حیرتیں کبھی تو نے جس کو چھوا نہیں میں وہ ایک کوری کتاب ہوں مری اپنی شکل نہیں کوئی تو نے جیسے ڈھالا میں ڈھل گئی ہے یہ فیصلہ ترے ہاتھ میں میں عذاب ہوں کہ ثواب ہوں ترے ذوقِ مے کے شباب کو نیا چاہئیے کوئی اب نشہ

Nazm(कविता)_Mai Sochta Hun_Poet Iftekhar Bukhari

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मैं सोचता हूं अगर दो रास्ते होते तुम तक जाने के लिए किसी बाग़ में चहल कदमी की तरह यख़ बसता पहाड़ों में सफे़द सुरंगो जैसे अगर दो ख़्वाब होते सहमी हुई ख़ामोश रातों में जागने के लिए  सोने के लिए अगर दो जंगल होते पुर असरारी में भटकने के लिए या दुनिया दारों से कटने के लिए अगर दो परिंदे होते   मोहब्बत के लिए अगर दो सराब होते  प्यासा जीने के लिए प्यासा मरने के लिए अगर दो कहानियां होतीं कंदीम चट्टान पर कंदा ना क़ाबिले फ़हम नक़ूश में मदफ़ून याद करने के लिए  भूल जाने के लिए अगर दो गीत होते  मेरे जीते जी आखिरी हिचकी की लेने के लिए या मेरे बाद कुछ पल  मुझे रोने के लिए अगर दो सितारे होते  सुबह काज़िब की दहलीज़ पर चमकने के लिए बुझने के लिए  उम्र गुज़ार कर  मैं सोचता हूं यह मुमकिन नहीं  इस दुनिया की बे इंतहाई में दो चीज़ें नहीं होतीं सिवाय दो तन्हाइयों के  तू  और मैं इफ़्तिख़ार बुखा़री میں سوچتا ہوں  ۔ اگر دو راستے ہوتے تم تک جانے کے لیے  کسی باغ میں چہل قدمی کی طرح  یخ بستہ پہاڑوں میں  سفید سرنگوں جیسے اگر دو خواب ہوتے سہمی ہوئی خاموش راتوں میں  جاگنے کے لیے سونے کے لیے اگر دو جنگل ہوتے پُراسراری می

Ghazal_Poet_Iqbal Naveed

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मैं था कि मेरे साथ कोई जागता रहा लगता है  सारी रात कोई जागता रहा थपकी के साथ कोई सुलाता रहा मुझे मै सो गया तो हाथ कोई जागता रहा ऐसा सफ़र था नींद में चलते रहे क़दम जैसे दरून_ए_ज़ात़  कोई जागता रहा पहलू बदल बदल के रहे खेत में मगन होने लगी थी मात कोई जागता रहा चोरों की तरह वक़्त गुज़ारा मचान पर शब भर लगा के घात कोई जागता रहा इक सम्त शोर दिल का मगर दूसरी तरफ़ ख़ामोश इहतेयात कोई जागता रहा वो आग थी नवीद कि जलती रही ज़मीं बहता रहा फ़रात कोई जागता रहा इक़बाल नवीद غزل ۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔ میں تھا کہ میرے ساتھ کوئی جاگتا رہا لگتا ہے ساری رات کوئی جاگتا رہا تھپکی کے ساتھ کوئی سُلاتا رہا مجھے میں سو گیا تو ہاتھ کوئی جاگتا رہا ایسا سفر تھا نیند میں چلتے رہے قدم جیسے درونِ ذات کوئی جاگتا رہا پہلو بدل بدل کے رہے کھیل میں مگن ہونے لگی تھی مات کوئی جاگتا رہا چوروں کی طرح وقت گزارا مچان پر شب بھر لگا کے  گھات کوئی جاگتا رہا اک سمت شور دل کا مگر دوسری طرف خاموش  احتیاط  کوئی  جاگتا  رہا وہ آگ تھی نوید کہ جلتی رہی زمین بہتا  رہا  فرات  کوئی  جاگتا  رہا  ۔۔۔۔۔۔۔۔۔،،۔۔۔۔۔۔ اقبال نوید

Ghazal_Poet_Abdur Rahman wasif

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پہلے تو خود کا نام و نسب دیکھتا ہوں میں  پھر دل میں آپ ہی کی طلب دیکھتا ہوں میں اب کون تجھ سے آ کہ کہے میرا مدعا  وحشت سے خود کو مہر بلب دیکھتا ہوں میں ورنہ تجھے بتاتا میں، کیا شے ہے بے رخی  افسوس دوست ! حدِ ادب دیکھتا ہوں میں جب کوئی مجھ کو حرفِ ملامت سے زخم دے  اِس ربطِ پائمال کو تب دیکھتا ہوں میں دنیا ! اسے پسند بہت ہے ترا طریق ورنہ تیرے وجود کو کب دیکھتا ہوں میں کب تک انتظار کی دہلیز چومتا وہ شخص کہہ رہا تھا کہ اب دیکھتا ہوں وحشت میں کوستا ہوں دلِ نامراد کو جب اپنے دل میں اس کی طلب دیکھتا ہوں میں شاید تمہارے ہجر کی زحمت قریب ہے  دل میں کسی فشار کی چھب دیکھتا ہوں میں عبدالرحمان واصف पहले तो ख़ुद का नाम_ओ_नसब देखता हूं मैं फिर दिल में आप ही की तलब देखता हूं मैं अब कौन तुझसे आ के कहे मेरा मुद्द'आ वहशत से ख़ुद को मोहर_ए_ ब-लब देखता हूं मैं वरना तुझे बताता मैं क्या है बेरुखी अफ़सोस दोस्त! हद_ए_अदब देखता हूं मैं जब कोई मुझको हरफ़_ए_मलामत से ज़ख्म दे उस रब्त_ए_पाएमाल को तब देखता हूं मैं दुनिया । उसे पसंद बहुत है तेरा तरीक़ है  वरना तेरे वजूद को कब देखता हूं मैं मै कब तक इ

Nazm(Kavita)_Pamaal Khushbu_Poet_ Tahzeeb Abrar

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पामाल ख़ुशबू वो आखि़र होगई हासिल जो शए मतलूब थी तुमको अजल का खौफ़ बेमानी अजल महबूब थी तुमको तुम्हें शिकवा बहुत था ना कि मेरी जा़त के अंदर कोई आंधी सी चलती है हमेशा धूल उड़ती है गिला तुमको यही था ना कि मुझ में खारज़ारों का सुलगते रेग ज़ारों का अजब इक सिलसिला सा है उठो । देखो ज़रा आ कर तुम अपनी क़ब्र का मंज़र हज़ारों फूल महके हैं हज़ारों रंग बिखरे हैं तहज़ीब अबरार ( پامال خوشبو ) وہ آ خر ہوگئی حاصل جو شئے مطلوب تھی تم کو اجل کا خوف بے معنیٰ اجل محبوب تھی تم کو تمہیں شکوہ بہت تھا نا ! کہ میری ذات کے اندر  کوئی آ ندھی سی چلتی ہے ہمیشہ دھول اڑتی ہے گلہ تم کو یہی تھا نا ! کہ مجھ میں خارزاروں کا سلگتے ریگ زاروں کا عجب اک سلسلہ سا ہے  اٹھو ! دیکھو ذرا آ کر  تم اپنی قبر کا منظر  ہزاروں پھول مہکے ہیں ہزاروں رنگ بکھرے ہیں   تہذیب ابرار

Ash'aar_Poet_Arif Nazeer

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आंखों से किसी ख़ास गुज़ारिश का मज़ा ले मौसम की मज़ेदार नवाज़िश का मज़ा ले इस वक़्त हर एक ग़म को ताक़ पर रख कर आ खुल के मेरे साथ तू बारिश का मज़ा ले आरिफ़ नज़ीर   آنکھوں سے کسی خاص گزارش کا مزہ لے موسم کی مزیدار نوازش کا مزہ لے اس وقت ہر اک غم کو کہیں طاق پہ رکھ کر آ کھل کے مرے ساتھ تو بارش کا مزہ لے عارف نظیر