Ghazal_Poet_Paras Mazari
इस रूह पर अभी सरे बिस्तर नहीं किया
पाकिज़गी का तजुर्बा छूकर नहीं किया
पानी ना दे सका जहां आंसू बहा दिए
मैंने किसी ज़मीन को बंजर नहीं किया
इस बार चुप सा रह गया सुनकर सवाल ए इश्क़
इस बार दिल ने हाथ भी ऊपर नहीं किया
कुछ और इंतज़ार ऐ जाहिर परस्त दोस्त
मयार ए ज़िंदगी अभी बेहतर नहीं किया
मेहराब और दाग में तफ़रीक़ कैसे हो
किस-किस को हमने माथे का झूमर नहीं किया
पारस मज़ारी
اس روح پر ابھی سرِ بستر نہیں کیا
پاکیزگی کا تجربہ چھوکر نہیں کیا
پانی نہ دے سکا جہاں ، آنسو بہا دیے
میں نے کسی زمین کو بنجر نہیں کیا
اس بار چپ سا رہ گیا سن کر سوالِ عشق
اس بار دل نے ہاتھ بھی اوپر نہیں کیا
کچھ اور انتظار اے ظاہر پرست دوست
معیارِ زندگی ابھی بہتر نہیں کیا
محراب اور داغ میں تفریق کیسے ہو
کس کس کو ہم نے ماتھے کا جھومر نہیں کیا
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