Zamir Qais



हवा के साथ कट रही है उम्र साज़ बाज़ में
बना रहा हूं बादबानी कश्तियां जहाज़ में

बदन के ज़लज़लों ने दिल को भी हिला के रख दिया
लगेगा वक़्त कुछ जुनूं को अपने इरतेकाज़ में

सड़क पहाड़ से उतर के वादियों में खो गई
धंसा हुआ है ज़हन अभी बर्फ़ के गुदाज़ में

ख़ियाम जल रहे हैं दशत में ख़ुदा के सामने
बिलक के रो रही हैं सय्यदानियां नमाज़ में

हम ऐसे अहद_ए_ बा हुनर में है जहां पे दोस्तो
छुपी हुई है बात, बात में तो राज़, राज़ में

नहीं नहीं यह तंज़ बंदगी पे तो ज़रा नहीं
झुके हुए हैं हम जो बारगाह_ए_बे नयाज़ में

मिलेगा लुत्फ़े ज़िंदगी क़दम क़दम पे दोस्ता
कहीं-कहीं नशीब में कहीं-कहीं फ़राज़ में

करूंगा तर्क_ए_इश्क़ पर मैं बहस जो़र_ओ_शोर से
भर लूंगा दम ज़रा सा हर दलील_ए_बे ज्वाज़ में

बस एक ज़ख्म हम लिए फिरे गली-गली सदा
जो इत्तेफ़ाकन आ गया था चश्म_ए_चारा साज़ में

है मेरे लफ्ज़ लफ्ज़ में अब उसका हुसन_ए_साहरी
जो हूर_ए_ज़ाद कल मिली थी मुझको बुज विलाज़ में

कोई अताओं के लिए मुक़र्ररा घड़ी नहीं
यही तो फ़र्क़ है मसीह व सांता क्लॉज़ में

वह इसलिए कि झुंड में सभी पर छांव है मेरी
मैं जल रहा हूं सिर्फ़ अपने जुर्म_ए_इम्तियाज़ में

कभी-कभी ज़मीर चाहता है दिल मेरा बहुत
ज़माना छोड़ छाड़ के मैं जा बसूं हजाज़ में

ज़मीर कै़स


बुज विलाज़_ मुल्तान की खूबसूरत रहाइशी कॉलोनी


ہوا کے ساتھ کٹ رہی ہے عمر سازباز میں
بنا رہا ہوں بادبانی کشتیاں جہاز میں

بدن کے زلزلوں نے دل کو بھی ہلا کے رکھ دیا
لگے گا وقت کچھ جنوں کو اپنے ارتکاز میں

سڑک پہاڑ سے اتر کے وادیوں میں کھو گئی
دھنسا ہوا ہے ذہن اب بھی برف کے گداز میں

خیام جل رہے ہیں دشت میں خدا کے سامنے
بلک کے رو رہی ہیں سی٘دانیاں نماز میں

ہم ایسے عہد ِ باہنر میں ہیں جہاں پہ دوستو
چھپی ہوئی ہے بات ، بات میں تو راز ، راز میں

نہیں نہیں یہ طنز بندگی پہ تو ذرا نہیں
جھکے ہوئے ہیں ہم جو بارگاہ ِ بے نیاز میں

ملے گا لطف ِ زندگی قدم قدم پہ دوستا
کہیں کہیں نشیب میں کہیں کہیں فراز میں

کروں گا ترک ِ عشق پر میں بحث زور و شور سے
بھروں گا دم ذرا سا ہر دلیل ِ بے جواز میں

بس ایک زخم ہم لئے پھرے گلی گلی سدا 
جو اتفاقاً آ گیا تھا چشم ِ چارہ ساز میں

ہے میرے لفظ لفظ میں اب اس کا حسن ِ ساحری
جو حٌور زاد کل ملی تھی مجھ کو بٌچ ولاز میں 🌱

کوئی عطاؤں کے لئے مقررہ گھڑی نہیں
یہی تو فرق ہے مسیح و سانتا کلاز میں

وہ اس لئے کہ جٌھنڈ میں سبھی پہ چھاؤں ہے مری
میں جل رہا ہوں صرف اپنے جرم ِ امتیاز میں

کبھی کبھی ضمیر چاہتا ہے دل مرا بہت
زمانہ چھوڑ چھاڑ کے میں جا بسوں حجاز میں

ضمیر قیس

🌱 بٌچ ولاز ،، ملتان کی خوبصورت رہائشی کالونی 🤭

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