हवा के सामने हर फूल से लिपटना है बिखरता जिस्म हूं मुझको यूं ही सिमटना है कोई सितारा कोई चांद चाहिए तो बता तेरे फकीर ने कश़कोल को उलटना है मैं तेरा हिज्र लिए सांस ले रहा हूं मगर ये वक़्त लगता नहीं यार मुझसे कटना है हमारे पेट ख़ुदा भर रहा है मिस्रों से हमारे हक़ में हमेशा यह रिज्क बटना है ज़मीन राख लगे और आसमान धुआं न जाने कैसे कहां कब ये खौफ छटना है ये सरहदों में मुक़य्यद मोहब्बतें कब तक गुले "लहोर" हूं मैं तू "हवाए" पटना है हमारे बाज़ू कटेंगे अलम संभालते वक़्त हमारी मशको ने दरिया किनारे फटना है अधूरे ख़्वाब में गुंजाइश ए वफ़ा क्या हो तुझे पढ़ा के मुझे जाने कितना घटना है हर एक चीज की होती है बाज़गश्त फ़कीह वह जा रहा है अगर तो उसे पलटना है फ़कीह हैदर ہوا کے سامنــے ہر پھـــول سے لپٹنا ہے بکــھرتا جســـم ہوں مجھ کو یونہی سمٹنا ہے کوئـــی ستارہ کوئـــی چاند چاہیـــے تو بتا ترے فقیر نے کشـــکول کو الٹنا ہے میں تیرا ہجر لیے سانس لے رہا ہوں مگر یہ وقت لگتا نہـــیں یار مجھ سے کٹنا ہے ہمارے پیٹ خـــدا بھـــر رہا ہے ...
Ghazal Poet _ zeeshan Murtaxa किनारे आबे रवां खोई कश्तियों से उधर मैं जी रहा हूं सराबों की सरहदों से उधर बसी थी उसकी निगाहों में ऐसी ख़ामोशी मैं चौंक चौंक पड़ा दिल की धड़कनों से उधर ये किस सदा कि ताक़्क़ुब में चल पड़े हम लोग उफ़क़ से दूर कहीं नीले पानियों से उधर थे बंद शहर के ख़स्ता मकां ज़मानों से सो झांकते ही नहीं लोग खिड़कियों से उधर है एक परी के तसर्रुफ़ में इन दिनों जी़शान वह झील देखते हो सब्ज़ टहनियों से उधर जी़शान मुर्तजा़ کنارِ آب رواں کھوئی کشتیوں سے اُدھر میں جی رہا ہوں سرابوں کی سرحدوں سے اُدھر بسی تھی اس کی نگاہوں میں ایسی خاموشی میں چونک چونک پڑا دل کی دھڑکنوں سے اُدھر یہ کس صدا کے تعاقب میں چل پڑے ہم لوگ افق سے دور کہیں نیلے پانیوں سے اُدھر تھے بند شہر کے خستہ مکاں زمانوں سے سو جھانکتے ہی نہیں لوگ کھڑکیوں سے اُدھر ہے اک پری کے تصرف میں ان دنوں ذی شان وہ جھیل دیکھتے ہو سبز ٹہنیوں سے اُدھر ذی شان
शेर अभी से कैसे बताऊं के क्या है पेशे नज़र अभी तो दिल को तेरी कैद से निकलना है अताउर रहमान क़ाज़ी ابھی سے کیسے بتاؤں کہ کیا ہے پیش ِ نظر ابھی تو دل کو تری قید سے نکلنا ہے عطاءالرحمن قاضی
شکریہ سلامتی ہو
ReplyDelete