Ghazal_ Poet _ Zamir Qais

कुछ इसलिए भी थकन की दलील चुभती है
ज़रा जो टेक लगाऊं फ़सील चुभती है

नहा रहा हूं उदासी के बर्फजा़रों में
बदन को धूप नहीं अब तो झील चुभती है

चराग़ ख़ल्क़ हुआ था मेरे घराने में
हवा को इसलिए मेरी क़बील चुभती है

मिजा़ज व लम्स में ऐसा तज़ाद है कि मैं
गुदाज़ लगता है ख़ंजर शनील चुभती है

यह दिल है तिष्णा खज़ा़नों का वह सुराग़ जैसे
मताए ख़सलते  दरिया ए नील चुभती है

मैं चश्मे जख्मे  फिलीस्तीन की बसारत हूं
मुझे भी रेगे बनी इसराइल चुभती है

तवज्जो यार की खै़रात खास है जो सदा
बढ़े तो बद गुमान करदे कलील चुभती है
मैं चुन रहा हूं मुसाफ़त की कृचियां जब से
हर एक सतरे ख़ते संगे मील चुभती है

अब ऐसे मख़मली पैरों को कौन सहलाए
ज़मीं पे रखते हुए जिनको बेल चुभती है

यह  हिॼ भी है आजी़यत में जिंदगी करना
कि जिस तरह किसी जूते कील  चुभती है

दिखाए कोई तो नींदों के ख़्वाब मुझको ज़मीर
सितारे गिनते हुए शब  तवील चुभती है
ज़मीर कै़स

کچھ اس لئے بھی تھکن کی دلیل چبھتی ہے
ذرا جو ٹیک لگاؤں ، فصیل چبھتی ہے

نہا رہا ہوں اداسی کے برف زاروں میں
بدن کو دھوپ نہیں اب تو جھیل چبھتی ہے

چراغ خلق ہوا تھا مرے گھرانے میں
ہوا کو اس لئے میری قبیل چبھتی ہے

مزاج و لمس میں ایسا تضاد ہے کہ مجھے
گداز لگتا ہے خنجر ، شنیل چبھتی ہے

یہ دل ہے تشنہ خزانوں کا وہ سراغ جسے
متاع ِ خصلت ِ دریاۓ نیل چبھتی ہے

میں چشم ِ زخم ِ فلسطین کی بصارت ہوں
مجھے بھی ریگ ِ بنی اسرائیل چبھتی ہے

توجہ یار کی خیرات ِ خاص ہے جو سدا
بڑھے تو بدگماں کردے ، قلیل چبھتی ہے

میں چن رہا ہوں مسافت کی کرچیاں جب سے
ہر ایک سطر ِ خط ِ سنگ ِ میل چبھتی ہے

اب ایسے مخملیں پیروں کو کون سہلاۓ
زمیں پہ رکھتے ہوئے جن کو ہیل چبھتی ہے

یہ ہجر بھی ہے اذیت میں زندگی کرنا
کہ جس طرح کسی جوتے میں کیل چبھتی ہے

دکھاۓ کوئی تو نیندوں کے خواب مجھ کو ضمیر
ستارے گنتے ہوۓ شب طویل ، چبھتی ہے

ضمیر قیس

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